यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
सुरक्षित कोना
कालीकट से अर्णाकुलम् जाते हुए मैं रास्ते में त्रिचुर उतर गया-वडक्कुनाथन् का मन्दिर देखने के लिए। मन्दिर के पश्चिमी गोपुरम् के बाहर बने विशाल स्तम्भ के पास रुककर मैं कई क्षण उसकी भव्यता को मुग्ध आँखों से देखता रहा। फिर वहाँ से हटकर अन्दर को चला, तो पूजा करके लौटते एक युवक ने मुझे रोक दिया। ध्यान से मुझे देखते हुए कहा, "आप मन्दिर में जाना चाहते हैं?"
मैंने चिढ़े हुए भाव से उसकी तरफ़ देखा और सिर हिला दिया।
"परन्तु इस वेश में आप अन्दर नहीं जा सकते," वह बोला। "अन्दर जाने के लिए आवश्यक है कि आप उचित वेश में हों-जिस वेश में इस समय मैं हूँ।"
वह दो गज़ की दक्षिणी धोती तहमद की तरह बाँधे था और कन्धे पर गज़-भर का टुकड़ा अँगोछे की तरह लिये था। गले में कुछ भी नहीं था। मुझे लगा कि मुझे बिना मन्दिर देखे ही लौट जाना होगा क्योंकि न तो वे कपड़े मेरे पास थे, न ही मैं ख़रीदकर पहनने का तरद्दुद कर सकता था। मैं वहाँ से लौटने को हुआ, तो उस युवक ने पूछ लिया, "आप कहाँ से आये हैं?"
"आज कालीकट से आ रहा हूँ," मैंने कहा।
"वैसे पंजाब से आया हूँ।"
"इतनी दूर से? बहुत दूर से आये हैं आप!" वह बात बहुत कोमल ढंग से कर रहा था। चेहरे से भी बहुत सौम्य जान पड़ता था।
"आप मन्दिर देखना चाहते हैं, तो एक काम हो सकता है," वह सहानुभूति के साथ बोला। "मेरा घर यहाँ से दूर नहीं है। आपको आपत्ति न हो, तो मैं वहाँ चलकर आपको धोती और अँगोछा दे सकता हूँ। आपको आपत्ति तो नहीं होगी न?" उसका स्वर ऐसा था जैसे मेरे लिए कुछ करने की जगह वह मुझसे अपने लिए कुछ करने को कह रहा हो।
"मुझे आपत्ति क्यों होगी?" मैंने कहा। "मैं तो बल्कि आपका आभार मानूँगा कि मुझे बिना मन्दिर देखे नहीं लौट जाना पड़ा।"
"तो चलिए," वह बोला। "मैं ब्राह्मण हूँ, इसलिए आपत्ति की कोई बात भी नहीं है? मैंने केवल इसलिए पूछा था कि आपको धोती बाँधने में अड़चन न हो। मेरे लिए तो यह खुशी की बात है कि मैं आपका इतना-सा काम कर सकूँ। आप इतनी दूर से आये हैं...।"
घंटा-भर बाद धोती बाँधे और कन्धे पर अँगोछा रखे मैंने मन्दिर के पश्चिमी गोपुरम् से उसके साथ अन्दर प्रवेश किया। तब तक मैं उसके विषय में थोड़ा-बहुत जान चुका था। उसका नाम 'श्रीधरन्' था। वह वहीं की एक धार्मिक संस्था में काम करता था। उस दिन इतवार होने से उसे छुट्टी थी।
मैं काफ़ी देर उसके साथ मन्दिर में घूमता रहा। वहाँ उस दिन मेरा कुछ नये देवताओं से परिचय हुआ। परम शिव, विघ्नेश्वर, पार्वती, शंकर-नारायण, राम और गोलाप-कृष्ण-ये सब परिचित देवता थे। नये देवता थे सिंहोदर (जिसे शिव-गण का मुखिया माना जाता है), धर्मशास्ता अय्यप्पा (जिसे शिव और मोहिनी-रूप विष्णु के संयोग से उत्पन्न माना जाता है, और जो भक्तों की नयी पीढ़ी का प्रिय देवता है) और कलि (जिसके सम्बन्ध में पुजारियों का विश्वास है कि वह दिन-प्रति-दिन आकार में बड़ा हो रहा है)।
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- प्रकाशकीय
- समर्पण
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- दिशाहीन दिशा
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- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान